रिपोर्ट : मधु पांडे
पौराणिक कथाओं के अनुसार मां दुर्गा की पूजा एवं नवरात्रि पूजन के कई कारण माने जाते हैं
इसे बुराई पर अच्छाई के जीत का प्रतीक भी माना जाता हैं, माना जाता है कि देवी दुर्गा ने राक्षस महिषासुर से नौ दिनों तक युद्ध किया था और 10वे दिन उसका वध किया।
इसलिए नवरात्रि में नौ दिनों तक माँ दुर्गा के अलग अलग रूपों की पूजा की जाती हैं, दुर्गा पूजा हिंदू धर्म में सबसे पवित्र पूजा मानी जाती हैं और पुरे भारतवर्ष इसे बडे धूमधाम मनाया जाता हैं, माँ दुर्गा के आगमन के साथ साथ शरद ऋतु का भी आगमन होता हैं इसलिए इसे शरदोत्सव भी कहते हैं ,
ये पूजा हर राज्य में मनायी जाती हैं पर पश्चिम बंगाल, ओडिशा और आसाम में ये मुख्य रूप से मनायी जाती हैं परंतु पश्चिम बंगाल की दुर्गापूजा आज विश्व प्रसिद्ध है, हर साल पूरी दुनिया के कई देशों से लोग बंगाल की दुर्गापूजा देखने आते हैं, भव्य मंडप, चकाचौंध कर देने वाली रोशनी के बीच चमचमाती मां दुर्गा की प्रतिमा होती है लेकिन क्या आप जानते हैं कि बंगाल की यह भव्य दुर्गापूजा कब शुरू हई ? किसने पहली बार दुर्गापूजा की? आखिर दुर्गापूजा करने का कारण क्या था?
साथ ही आपको बताएगें किन-किन तत्वो से माँ की प्रतिमा तैयार की जाती हैं और वैश्याओ के आंगन की मिट्टी से ही क्यूँ माँ की प्रतिमा पुर्ण मानी जाती हैं
आइए सबसे पहले पलटते है इतिहास के पन्ने
16वी सदी के 1576 ईस्वी में जब बंगाल का विभाजन नहीं हुआ था उस समय एक कंस नारायण नामक राजा ने अपने गांव में पहली बार माँ दुर्गा की पूजा की थी ।
वही कोलकाता में पहली बार 1610 ईस्वी में बड़ीशा के राय चौधरी परिवार के द्वारा दुर्गा पुजा की गयी थी तब कोलकाता शहर नहीं बल्कि एक गांव हुआ करता था जिसका नाम कलिकाता था
पौराणिक कथाओं के अनुसार मां दुर्गा की पूजा एवं नवरात्रि पूजन के कई कारण हैं
इसे बुराई पर अच्छाई के जीत का प्रतीक माना जाता हैं, माना जाता है देवी दुर्गा ने राक्षस महिषासुर से नौ दिनों तक युद्ध किया था और 10वे दिन उसका वध किया
इसलिए नवरात्रि में नौ दिनों तक माँ दुर्गा के अलग अलग रूपों की पूजा की जाती हैं,
पश्चिम बंगाल में माँ दुर्गा की प्रतिमा किन किन तत्वो से बनाई जाती हैं और ऐसा क्यूँ माना जाता है कि वेश्यालय की मिट्टी के बिना माँ की प्रतिमा अधूरी होती हैं
हिन्दू मान्यताओं के अनुसार मां दुर्गा की जो प्रतिमा हैं उसके लिए 4 चीजें बहुत महत्वपूर्ण हैं पहली गंगा तट की मिट्टी दूसरी गोमूत्र, गोबर और वेश्यालय की मिट्टी या किसी भी ऐसे जगह की मिट्टी जहां जाना निषेध हो इन सभी को मिलाकर बनाई गयी मूर्ति ही पूर्ण मानी जाती हैं
दरअसल वैश्याओ के आँगन के मिट्टी के बिना माँ की प्रतिमा अधूरी मानी जाती हैं और माँ दुर्गा पूजा स्वीकार नहीं करती इसलिए कोलकाता में प्रतिमा बनाने के लिए मिट्टी सोनागाछी से लायी जाती है क्योंकि ये वहां का रेड लाइट एरिया जहां वेश्याए अपना जीवन यापन करने हेतु देह व्यापार करती हैं और यहाँ आने वाले पुरुष उनकी दहलीज से पार होते हुए अपनी गरिमा, पवित्रता और मर्यादा बाहर ही उतार कर अंदर जाते है इसलिए वैश्याओ के आँगन की मिट्टी को इतना पवित्र माना जाता हैं ,
ऐसी मान्यता है कि मंदिर का पुजारी या मूर्तिकार वेश्यालय के बाहर जाकर वेश्याओं से उनके आंगन की मिट्टी की भीख मांगता है। मिट्टी के बिना मूर्ति निर्माण अधूरा रहता है इसलिए मूर्तिकार तब तक मिट्टी को भीख स्वरूप मांगता है जब तक कि उसे मिट्टी मिल न जाए। अगर वेश्या मिट्टी देने से मना भी कर देती है तो भी वो उनसे इसकी भीख मांगता रहता है। प्राचीन काल में इस प्रथा का हिस्सा केवल मंदिर का पुजारी ही होता था लेकिन जैसे -जैसे समय बदला पुजारी के अलावा मूर्तिकार भी वेश्यालय से मिट्टी लाने लगे और ये प्रथा अभी भी जारी है।
दूसरी मान्यता के अनुसार वेश्यावृति करने वाली स्त्रियों को समाज से बहिस्कृत माना जाता है और उन्हें एक सम्मानजनक दर्जा दिलाने के लिए इस प्रथा का चलन शुरू किया गया था। उनके आंगन की मिट्टी को पवित्र माना जाता है और उसका उपयोग मूर्ति के लिए किया जाता है। वास्तव में इस त्यौहार के सबसे मुख्य काम में उनकी ये बड़ी भूमिका उन्हें समाज की मुख्य धारा में शामिल करने का एक बड़ा जरिया है।